बुरे वक्त में काम देगी, गौतम बुद्ध की ये कहानी | Buddhist Motivational Story
एक दिन भगवान बुद्ध अपने शिष्यों के साथ बैठे थे। शांत वातावरण, गहरी अंतर्दृष्टि से भरी बुद्ध की बातें, और शिष्यों के बीच एक असाधारण शांति थी। तभी उनमें से एक शिष्य ने अपनी जिज्ञासा को रोक नहीं पाया। वह खड़ा हुआ और तीन महत्वपूर्ण प्रश्न पूछे, जो न केवल उसके मन में थे, बल्कि हम सभी के लिए भी प्रासंगिक हैं:
- पहला प्रश्न: कौन किसके भाग्य का खाता है?
- दूसरा प्रश्न: संसार का सबसे बड़ा बलवान कौन है?
- तीसरा प्रश्न: जो अपनी बात से मुकर जाता है, उसका क्या अंजाम होता है?
भगवान बुद्ध थोड़ी देर शांत रहे, और फिर मुस्कराते हुए बोले, "तुम्हारे यह प्रश्न बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। ये प्रश्न केवल तुम्हारे नहीं, हर मनुष्य के जीवन में आते हैं। मैं तुम्हें इन प्रश्नों का उत्तर एक कहानी के माध्यम से दूंगा। ध्यान से सुनो, क्योंकि इसी कहानी में तुम्हारे सभी उत्तर छिपे हुए हैं।
बरगद का पेड़, बाज और सर्प
बहुत समय पहले की बात है। एक घना जंगल था, और उस जंगल के बीचों-बीच एक विशाल बरगद का पेड़ खड़ा था। उसकी शाखाएं इतनी बड़ी और घनी थीं कि वह जंगल के कई हिस्सों को छाया देती थीं। उस पेड़ पर एक बाज पक्षी अपना घोंसला बनाकर रहता था। हर सुबह वह शिकार की तलाश में निकलता और पेड़ के ऊपर मंडराता रहता।
वहीं, बरगद के पेड़ से थोड़ी दूरी पर एक गहरा बिल था, और उस बिल में एक सर्प रहता था। यह सर्प बहुत चालाक था और दिन भर अपने बिल के अंदर ही छिपा रहता था, क्योंकि वह जानता था कि बाहर खतरा हो सकता है।
बाज और सर्प की पहली मुठभेड़
एक दिन, जब सर्प बिल से बाहर निकलने की कोशिश कर रहा था, तभी उसे दूर से बाज ने देख लिया। बाज बहुत फुर्तीला था और उसने सर्प को अपना शिकार बनाने का मन बना लिया। वह तेजी से उड़कर सर्प की ओर झपटा, लेकिन सर्प अपने बिल के अंदर वापस घुस गया।
बाज कुछ देर वहां मंडराता रहा, यह सोचते हुए कि जैसे ही सर्प फिर से बाहर आएगा, वह उसे पकड़ लेगा। लेकिन सर्प बहुत सतर्क था। वह हर बार बिल से थोड़ा बाहर निकलता, चारों ओर देखता, और बाज को देखते ही वापस अंदर चला जाता।
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सर्प का संघर्ष
यह मुठभेड़ कई दिनों तक चलती रही। सर्प को खाने के लिए बाहर आना था, लेकिन बाज हर बार उसे रोकने के लिए तैयार बैठा रहता। सर्प अब बहुत परेशान हो गया था। उसने कई बार कोशिश की, लेकिन वह हर बार असफल हो जाता। धीरे-धीरे उसकी ताकत कम होने लगी, और अब वह अपने बिल में ही भूखा-प्यासा बैठा था।
सर्प अब बहुत चिंतित था। उसकी स्थिति बेहद दयनीय हो चुकी थी। भूख-प्यास से तड़पते हुए उसने सोचा, "अगर मुझे कोई इस संकट से नहीं बचाएगा, तो मेरी मृत्यु निश्चित है।"
राजा विक्रम की सहायता की आशा
सर्प ने सुना था कि राजा विक्रम नाम का एक महान योद्धा है, जो हमेशा दूसरों की सहायता करता है। उसने मन ही मन राजा विक्रम को याद करना शुरू किया। वह हर किसी से, जो उस रास्ते से गुजरता, कहता, "कृपया मेरी यह बात राजा विक्रम तक पहुंचा दो। केवल वही मेरी मदद कर सकते हैं।"
सर्प की उम्मीदें अब पूरी तरह से राजा विक्रम पर टिकी हुई थीं। वह लगातार प्रार्थना करता रहा कि किसी तरह से राजा विक्रम उस तक पहुंच जाएं।
राजा विक्रम का आगमन
कुछ दिनों बाद, राजा विक्रम जंगल में शिकार करने के लिए निकले। वह अपने घोड़े पर सवार होकर उसी रास्ते से गुजर रहे थे, जहां सर्प का बिल था। जैसे ही राजा विक्रम वहां से गुजरे, सर्प ने उनकी आहट सुनी। उसने तुरंत बिल के अंदर से आवाज लगाई, "हे राजन! मुझे बचाइए। मैं कई दिनों से इस बिल में फंसा हूं। अगर मैं बाहर निकलता हूं, तो बाज मुझे मार देगा।"
राजा विक्रम को यह सुनकर आश्चर्य हुआ। वह घोड़े से उतरे और बोले, "कौन है जो मुझे पुकार रहा है?"
सर्प ने विनम्रता से कहा, "हे राजन, मैं इस बिल में रहने वाला सर्प हूं। बाहर एक बाज मेरा इंतजार कर रहा है, और जैसे ही मैं बाहर निकलता हूं, वह मुझ पर हमला कर देता है। मुझे आपकी मदद की सख्त जरूरत है।"
सर्प की विनती
राजा विक्रम ने सर्प की दयनीय स्थिति को समझा और बोले, "तुम्हारी मदद कैसे की जा सकती है? क्या तुम चाहते हो कि मैं उस बाज को भगा दूं?"
सर्प ने कहा, "नहीं, राजन। अगर आप बाज को भगाने की कोशिश करेंगे, तो वह फिर से मेरे लिए घात लगाए बैठेगा। मुझे बचाने का एक ही तरीका है—आप मुझे अपने पेट में कुछ समय के लिए स्थान दें। जब बाज को लगेगा कि मैं अब यहां नहीं हूं, तब आप मुझे किसी सुरक्षित स्थान पर छोड़ सकते हैं।"
राजा विक्रम ने थोड़ी देर सोचा, लेकिन फिर उनकी करुणा और दया ने उन्हें निर्णय लेने में मदद की। उन्होंने कहा, "ठीक है, सर्पराज। मैं तुम्हें अपने पेट में स्थान दूंगा, लेकिन याद रखना, जब हम सुरक्षित स्थान पर पहुंचेंगे, तो तुम्हें बाहर आना होगा।"
सर्प का छल
सर्प ने तुरंत राजा विक्रम के मुंह से होकर उनके पेट में प्रवेश कर लिया। राजा विक्रम ने सर्प को अपने पेट में बिठाया और घोड़े पर सवार होकर जंगल के दूसरी ओर जाने लगे। रास्ते में, राजा ने कई बार सर्प से पूछा, "क्या अब तुम बाहर आना चाहते हो?"
लेकिन सर्प ने हर बार इनकार किया और कहा, "नहीं, राजन। अभी बाज हमें देख सकता है। कुछ और आगे चलिए।"
राजा विक्रम ने धैर्य रखा और आगे बढ़ते रहे। जब वे एक सुनसान स्थान पर पहुंचे, जहां दूर-दूर तक कोई नजर नहीं आ रहा था, राजा ने फिर सर्प से कहा, "अब तुम बाहर आ सकते हो। यहां कोई तुम्हें नुकसान नहीं पहुंचाएगा।"
लेकिन इस बार सर्प ने कुछ और ही कहा। उसने ठंडी आवाज में जवाब दिया, "राजन, अब मैं आपके पेट से बाहर नहीं आऊंगा। यहां रहकर मुझे आराम और सुरक्षा मिल रही है। अब मैं यही रहूंगा।"
राजा विक्रम की मुश्किलें
सर्प का यह जवाब सुनकर राजा विक्रम चौंक गए। उन्हें लगा कि सर्प ने उनके साथ धोखा किया है। वह बहुत ही उदास हो गए। सर्प का विष उनके शरीर में फैलने लगा, जिससे उनके शरीर में भयंकर पीड़ा होने लगी। उनका शरीर धीरे-धीरे कमजोर होने लगा, और एक दिन वे पूरी तरह से बीमार हो गए।
राजा विक्रम को समझ में आ गया था कि सर्प ने उन्हें मूर्ख बनाया है। अब वह न तो राजधानी लौट सकते थे और न ही किसी से मदद मांग सकते थे। उनकी स्थिति दयनीय हो चुकी थी। शरीर से विष टपकने लगा, और वह जंगल में ही एक पेड़ के नीचे बैठ गए।
चित्रलेखा की उपस्थिति
उसी समय, राजा विक्रम का नाम दूर-दूर तक प्रसिद्ध था, लेकिन उनकी हालत के बारे में किसी को पता नहीं था। वहीं श्रावस्ती के महाराजा ताम्रध्वज की तीन बेटियां थीं। एक दिन महाराजा ने अपनी बेटियों से पूछा, "तुम किसके भाग्य का खाते हो?"
दो छोटी बेटियों ने तुरंत उत्तर दिया, "पिताजी, हम आपके भाग्य का खाते हैं।"
लेकिन सबसे बड़ी बेटी, चित्रलेखा, ने कहा, "नहीं पिताजी, मैं किसी के भाग्य का नहीं, बल्कि अपने भाग्य का खाती हूं।"
महाराजा ताम्रध्वज को यह सुनकर गुस्सा आ गया, और उन्होंने चित्रलेखा का विवाह एक अपंग, बीमार व्यक्ति से कराने का आदेश दिया। ब्राह्मण और नाई ने चित्रलेखा का विवाह राजा विक्रम, जो अब बीमार और कमजोर हो चुके थे, से कर दिया।
चित्रलेखा अपने पति की सेवा में लग गई। उसने देखा कि राजा विक्रम के शरीर में विष फैला हुआ था, और वह अत्यंत दुखी हो गई।
चित्रलेखा का समर्पण और उपाय
एक रात, जब राजा विक्रम सो रहे थे, चित्रलेखा ने देखा कि उनके पति की स्थिति दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही है। वह उनके प्रति पूरी तरह समर्पित थी, और इस स्थिति से उन्हें बाहर निकालने के लिए हर संभव प्रयास करने का विचार कर रही थी। उन्होंने महसूस किया कि कोई साधारण चिकित्सा राजा विक्रम की बीमारी को ठीक नहीं कर सकती, क्योंकि यह एक साधारण बीमारी नहीं थी, बल्कि सर्प द्वारा फैलाया गया विष था। चित्रलेखा ने अपने पति की पीड़ा को देखकर ठान लिया कि वह कुछ असाधारण उपाय ढूंढेंगी ताकि राजा विक्रम को इस संकट से मुक्ति मिल सके।
चित्रलेखा की तपस्या और ज्ञान की प्राप्ति
चित्रलेखा बहुत ही धार्मिक और तपस्वी महिला थीं। उन्होंने मन में यह विचार किया कि जब तक वह इस समस्या का समाधान नहीं ढूंढेंगी, तब तक वह भूखी-प्यासी रहकर तपस्या करेंगी। उन्होंने घने जंगल में जाकर एक पेड़ के नीचे तपस्या करना शुरू कर दिया। उन्होंने अपनी पूरी शक्ति भगवान की आराधना में लगा दी और रोज़ाना भगवान से प्रार्थना करती रहीं कि उन्हें अपने पति को बचाने का कोई उपाय मिल जाए।
कुछ दिन बीत गए, और चित्रलेखा की तपस्या की शक्ति बढ़ती गई। उनकी श्रद्धा और समर्पण को देखकर भगवान ने उनके सपने में आकर उन्हें एक उपाय बताया। भगवान ने कहा, "चित्रलेखा, तुम्हारे पति की यह स्थिति सर्प द्वारा फैलाए गए विष के कारण हुई है। यदि तुम सर्प को राजा के शरीर से बाहर निकालने में सफल हो जाती हो, तो उनके जीवन की रक्षा हो सकती है। सर्प को बाहर निकालने के लिए तुम्हें उस पर दबाव डालना होगा और उसे यह विश्वास दिलाना होगा कि अगर वह राजा के शरीर में और रहे, तो उसका खुद का जीवन भी खतरे में पड़ जाएगा।"
भगवान ने चित्रलेखा को यह भी बताया कि सर्प केवल एक विशेष मंत्र के प्रभाव से राजा के शरीर से बाहर निकलेगा। भगवान ने उसे मंत्र सिखाया और कहा, "यह मंत्र सर्प को मजबूर करेगा कि वह तुरंत राजा विक्रम के शरीर से बाहर निकल आए। लेकिन ध्यान रहे, जब सर्प बाहर आए, तो उसे मारने का प्रयास मत करना। उसे छोड़ देना, क्योंकि वह एक बार बाहर आ जाने के बाद दोबारा तुम्हारे पति को नुकसान नहीं पहुंचाएगा।"
चित्रलेखा का साहस और राजा विक्रम की मुक्ति
जब चित्रलेखा की आंखें खुलीं, तो उन्हें भगवान द्वारा बताया गया मंत्र अच्छी तरह याद था। उन्होंने तुरंत जंगल से वापस आकर राजा विक्रम की देखभाल शुरू कर दी। उस रात जब राजा विक्रम गहरी नींद में थे, चित्रलेखा ने भगवान द्वारा बताया गया मंत्र धीरे-धीरे पढ़ना शुरू किया। मंत्र की शक्ति से सर्प को बेचैनी महसूस होने लगी। उसे समझ में आने लगा कि यदि वह और राजा विक्रम के शरीर में रहेगा, तो उसकी अपनी जान को खतरा हो सकता है।
सर्प ने राजा विक्रम के अंदर से आवाज दी, "हे रानी! मुझे बाहर जाने दो। अब मैं राजा के शरीर में नहीं रह सकता। अगर तुमने मुझे नहीं छोड़ा, तो हम दोनों ही नष्ट हो जाएंगे।"
चित्रलेखा ने अपने मंत्र का पाठ जारी रखा, और कुछ ही क्षणों में सर्प मजबूर होकर राजा विक्रम के शरीर से बाहर आ गया। सर्प बाहर आते ही भागने की कोशिश करने लगा, लेकिन चित्रलेखा ने उसे रोकते हुए कहा, "तुम्हें अब राजा विक्रम को और किसी तरह की हानि नहीं पहुंचानी चाहिए। अगर तुमने ऐसा किया, तो इसका परिणाम तुम्हारे लिए बहुत बुरा होगा।"
सर्प ने विनम्रता से कहा, "मैंने अपनी गलती मान ली है। अब मैं तुम्हारे पति को और कोई नुकसान नहीं पहुंचाऊंगा। तुमने मुझे मुक्त कर दिया है, और मैं अब यहां से हमेशा के लिए जा रहा हूं।"
राजा विक्रम का स्वस्थ होना
सर्प के बाहर निकलते ही राजा विक्रम के शरीर में फैला विष धीरे-धीरे समाप्त होने लगा। राजा विक्रम की स्थिति में धीरे-धीरे सुधार होने लगा। कुछ ही दिनों में वह पूरी तरह स्वस्थ हो गए। उन्होंने अपनी पत्नी चित्रलेखा को अपनी ओर देखकर कहा, "तुमने मुझे एक बार फिर जीवनदान दिया है। तुम्हारे समर्पण, साहस और प्रेम ने मुझे मृत्यु के मुंह से बचा लिया। मैं तुम्हारा हमेशा आभारी रहूंगा।"
चित्रलेखा ने मुस्कराते हुए कहा, "राजन, यह मेरा कर्तव्य था। पत्नी का धर्म है कि वह हर परिस्थिति में अपने पति का साथ दे और उसके जीवन की रक्षा करे।"
चित्रलेखा के उत्तर का महत्व
राजा विक्रम ने अब महसूस किया कि चित्रलेखा के शब्द, "मैं अपने भाग्य का खाती हूं," कितने सही थे। उनकी दो बहनें जो अपने पिता के भाग्य पर निर्भर थीं, वे अपने निर्णयों में सीमित थीं। लेकिन चित्रलेखा ने अपने भाग्य पर विश्वास किया, अपने दृढ़ निश्चय और बुद्धिमानी से परिस्थितियों का सामना किया और विजय प्राप्त की।
राजा विक्रम ने चित्रलेखा की बुद्धिमानी और साहस की सराहना की और अपनी प्रजा को यह संदेश दिया कि हर व्यक्ति को अपने भाग्य और कर्म पर विश्वास करना चाहिए।
कहानी का अंत और बुद्ध के उत्तर
भगवान बुद्ध ने अपनी कहानी समाप्त की और अपने शिष्य की ओर देखकर कहा, "अब मैं तुम्हारे तीनों प्रश्नों का उत्तर दूंगा।"
पहला प्रश्न: कौन किसके भाग्य का खाता है? – हर व्यक्ति अपने भाग्य का खाता है। जब चित्रलेखा ने कहा कि वह अपने भाग्य का खाती है, उसने यह साबित कर दिया कि अपने कर्म और साहस के बल पर ही वह अपने जीवन में सफलता प्राप्त कर सकती है।
दूसरा प्रश्न: संसार का सबसे बड़ा बलवान कौन है? – संसार का सबसे बड़ा बलवान धैर्य और साहस है। चित्रलेखा के धैर्य और साहस ने ही उसे विजय दिलाई।
तीसरा प्रश्न: जो अपनी बात से मुकर जाता है, उसका क्या अंजाम होता है? – जो अपनी बात से मुकरता है, उसे हमेशा पछताना पड़ता है, जैसा कि उस सर्प के साथ हुआ। अंत में उसे हार मानकर राजा विक्रम के शरीर से बाहर आना पड़ा।
शिष्य ने भगवान बुद्ध के उत्तरों को सुना और उनकी बातों से प्रेरणा प्राप्त की। यह कहानी न केवल उस शिष्य के लिए, बल्कि हम सभी के लिए एक महान शिक्षा है कि हमें हमेशा अपने भाग्य पर विश्वास करना चाहिए और कठिनाइयों का साहस और धैर्य से सामना करना चाहिए।